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The world remembers him, who is the winner. Nobody remembers the loser.

The world remembers him, who is the winner. Nobody remembers the loser.

DATE

24 May 2020

The world remembers him, who is the winner. Nobody remembers the loser.

दुनिया उसे ही याद रखती है, जो विजेता होता है। हारने वाले को कोई याद नहीं रखता। खेल की दुनिया में चमकने की कोशिश करने वाले खिलाड़ियों के साथ आम तौर पर यही होता आया है। लेकिन, पीटी उषा खेल की दुनिया की ऐसी मिसाल हैं, जिन्होंने इन सभी नियमों को उलट कर रख दिया। ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने हिंदुस्तान में एक महिला होने की सभी सामाजिक बंदिशों को तोड़ा। 1984 के लॉस एंजेलेस ओलंपिक खेलों में चौथे नंबर पर आने के बावजूद, आज भी हिंदुस्तान में पीटी उषा का नाम एथलेटिक्स का पर्याय बना हुआ है। वो भारत की महानतम खिलाड़ियों में से एक मानी जाती हैं। पीटी उषा, न केवल खिलाड़ियों की कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनीं, बल्कि वो आज भी कई युवा एथलीटों के करियर को संवारने में अहम भूमिका निभा रही हैं। पीटी उषा का सफर उसी बाधा दौड़ जैसा रहा है, जैसी बाधा दौड़ में वो 1984 के ओलंपिक खेलों में शामिल हुई थीं। उनके जीवन और करियर में भी कई उतार-चढ़ाव आए।


अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए पीटी उषा कहती हैं, "असल में 1980 के दशक में हालात बिल्कुल अलग थे। जब मैं खेल की दुनिया में आई, तो मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन मैं ओलंपिक में भी भाग लूंगी।"

पीटी उषा का शुरुआती जीवन उनके अपने गांव पय्योली में बीता था, जो भारत के दक्षिणी राज्य केरल का एक तटीय जिला था। इसीलिए बाद के दिनों में पीटी ऊषा को पय्योली एक्सप्रेस के नाम से भी जाना जाता था। पीटी उषा ने दौड़ने की शुरुआत तब से की थी, जब वो चौथी कक्षा में पढ़ती थीं। उनके शारीरीक शिक्षा के अध्यापक ने उषा को जिले की चैंपियन से मुकाबला करने को कहा। वो जिला चैंपियन भी पीटी उषा के स्कूल में ही पढ़ती थी। उषा ने उस रेस में जिला चैंपियन को भी हरा दिया था। अगले कुछ वर्षों तक वो अपने स्कूल के लिए जिला स्तर के मुकाबले जीतती रही थीं। लेकिन, पीटी उषा का असल करियर तो 13 बरस की अवस्था में शुरू हुआ, जब उन्होंने केरल सरकार द्वारा लड़कियों के लिए शुरू किए गए स्पोर्ट्स डिविजन में दाखिला लिया था।



पीटी उषा दौड़ना अच्छा लगता था...
उषा बताती हैं, "मेरे एक चाचा उस स्कूल में टीचर थे। इसलिए मुझे खेल की दुनिया में जाने की इजाजत देने के लिए मेरे माता-पिता को मनाना आसान रहा था। उषा के परिवार ने केवल उनका समर्थन किया, बल्कि ट्रेनिंग के दौरान उनका हौसला भी बढ़ाया था। पीटी उषा उन दिनों के बारे में बताती हैं, "मेरे पिता उस मैदान में आया करते थे जहां मैं अभ्यास करती थी। वो मैदान में छड़ी लेकर आते थे। क्योंकि जब मैं तड़के दौड़ने के लिए जाती थी, तो वहां बहुत से कुत्ते आते थे।कई बार वो रेलवे लाइन के साथ-साथ एक धूल भरे रास्ते पर भी दौड़ने जाती थीं और वहां से गुजरती हुई गाड़ियों के साथ रेस लगाया करती थीं। पीटी उषा को समंदर किनारे दौड़ना भी अच्छा लगता था। वो कहती हैं, "मैं समंदर किनारे ट्रेनिंग करना पसंद करती थी। वहां कई तरह के अभ्यास किए जा सकते थे। कोई ओर-छोर नहीं हुआ करता था। आप चढ़ाई वाली दौड़ भी कर सकते थे और ढलान पर भी दौड़ लगा सकते थे। आपकी मर्जी।" उषा बताती हैं, "शुरुआत में तो लोग उन्हें देख कर हैरान हुआ करते थे। वो साल 1978 या 79 का था। मैं शॉर्ट पहन कर समंदर किनारे दौड़ लगाती थी। मुझे दौड़ते देखने के लिए बहुत से लोग बीच पर आया करते थे।"

वो कोच जिन्होंने पीटी उषा की जिंदगी बदल दी

लेकिन आखिर में उन लोगों ने भी उषा की मदद की और उनका हौसला बढ़ाया। वो कहती हैं, "मैं तैरना नहीं जानती थी। मुझे पानी के भीतर जाने में डर लगता था। बच्चे और आस-पास के लोग समुद्र किनारे आया करते थे। उन्हें तैरना आता था और वो मेरी हिफाजत किया करते थे।" हालांकि पीटी उषा, राज्य सरकार के प्रशिक्षण अभियान में शामिल थीं। फिर भी उन्हें बहुत कम सुविधाएं मिला करती थीं। वो बताती हैं, "वहां हम चालीस खिलाड़ी थे, जिनमें एथलीट भी शामिल थे। हमारे लिए गिने-चुने बाथरूम हुआ करते थे। तमाम मुश्किलों के बावजूद हमें सख्त नियमों का पालन करना पड़ता था।



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